Best 50 Kabir Das ke Dohe( प्रेम )
1. आगि आंचि सहना सुगम, सुगम खडग की धार
नेह निबाहन ऐक रास, महा कठिन ब्यबहार।
(अर्थ :- अग्नि का ताप और तलवार की धार सहना आसान है
किंतु प्रेम का निरंतर समान रुप से निर्वाह अत्यंत कठिन कार्य है।)
2. कहाॅं भयो तन बिछुरै, दुरि बसये जो बास
नैना ही अंतर परा, प्रान तुमहारे पास।
(अर्थ :- शरीर बिछुड़ने और दूर में वसने से क्या होगा? केवल दृष्टि का अंतर है।
मेरा प्राण और मेरी आत्मा तुम्हारे पास है।)
3. प्रीत पुरानी ना होत है, जो उत्तम से लाग
सौ बरसा जल मैं रहे, पात्थर ना छोरे आग।
(अर्थ :- प्रेम कभी भी पुरानी नहीं होती यदि अच्छी तरह प्रेम की गई हो जैसे सौ वर्षो तक भी
पानी में भी आग पत्थर से कभी अलग नहीं होता ।)
4. प्रेम पंथ मे पग धरै, देत ना शीश डराय
सपने मोह ब्यापे नही, ताको जनम नसाय।
(अर्थ :- प्रेम के राह में पैर रखने वाले को अपने सिर काटने का डर नहीं होता।
उसे सपना में भी कभी भ्रम नहीं होता है और उसके पुनर्जन्म का अंत भी हो जाता है।)
5. प्रेम ना बारी उपजै प्रेम ना हाट बिकाय
राजा प्रजा जेहि रुचै,शीश देयी ले जाय।
(अर्थ :- प्रेम कभी खेतो में पैदा नहीं होता है। और न हीं बाजार में बिकता है।
राजा या प्रजा जो भी प्रेम का इच्छुक हो वह अपने सिर का यानि सर्वस्व त्याग कर प्रेम
प्राप्त को कर सकता है। सिर का अर्थ गर्व या घमंड का त्याग कर प्रेम करना आवश्यक है।)
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Kabir ke dohe in hindi (विश्वास)
1. कबिरा चिंता क्या करु, चिंता से क्या होय
मेरी चिंता हरि करै, चिंता मोहि ना कोय।
(अर्थ :- कबीरा क्यों चिंता करै? चिंता से क्या होगा? मेरी चिंता प्रभु करते हैं।
मुझे किसी तरह की कोई चिंता नहीं है।)
2. जाके दिल मे हरि बसै, सो जन कलपैै काहि
एक ही लहरि समुद्र की, दुख दारिद बहि जाहि।
(अर्थ :- कोई व्यक्ति क्यों दुखी होवे या रोये यदि उसके हृदय मे प्रभु का निवास है।
समुद्र के एक हीं लहर से व्यक्ति के सारे दुख एंव दरिद्रता बह जायेगें।)
3. साई इतना दीजिऐ, जामे कुटुम समाय
मैं भी भूखा ना रहूॅं साधु ना भूखा जाय।
(अर्थ :- प्रभु मुझे इतनी संपदा दें जिससे मेरा परिवार समाहित हो सके
मेरा भी पालन हो जाये और कोई संत-अतिथि भी भूखा न जा सके।)
4. ऐसा कोन अभागिया जो बिस्वासे और
राम बिना पग धारन कु, कहो कहां है ठाौर।
(अर्थ :- जो व्यक्ति प्रभु के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र विश्वास करता है-वह अभागा है।
राम के अतिरिक्त पैर रखने की कहीं जगह नहीं मिल सकती है।)
5. आगे पीछे हरि खरा, आप समहारे भार
जन को दुखी क्यों करे, समरथ सिरजन हार।
(अर्थ :- भगवान भक्त के आगे पीछे खड़े रहते हैं। वे स्वंय भक्त का भार अपने उपर ले लेते हैं।
वे किसी भक्त को दुखी नहीं करना चाहते क्योंकि वे सर्व शक्तिमान हैं।)
Kabir Das ke Dohe ( ईश्वर स्मरण )
1. सुमिरन मारग सहज का,सदगुरु दिया बताई
सांस सांस सुमिरन करु,ऐक दिन मिलसी आये।
(अर्थ :- ईश्वर स्मरण का मार्ग अत्यंत सरल है। सदगुरु ने हमें यह बताया है।
हमें प्रत्येक साॅंस में ईश्वर का स्मरण करना चाहिये। एक दिन निश्चय ही प्रभु हमें मिलेंगे।)
2. सुमिरन की सुधि यों करो जैसे कामी काम
एक पलक बिसरै नहीें निश दिन आठों जाम।
(अर्थ :- ईश्वर के स्मरण पर उसी प्रकार ध्यान दो जैसे कोई लोभी कामी अपनी इच्छाओं का स्मरण करता है।
एक क्षण के लिये भी ईश्वर का विस्मरण मत करो। प्रत्येक दिन आठों पहर ईश्वर पर ध्यान रहना चाहिये।)
3. अपने पहरै जागीये ना परि रहीये सोय
ना जानो छिन ऐक मे, किसका पहिरा होय।
(अर्थ :- आप इस समय जागृत रहें। यह समय सोने का नहीं है।
कोई नहीं जानता किस क्षण आपके जीवन पर दूसरे का अधिकार हो जाये। समय का महत्व समझें।)
4. सहकामी सुमिरन करै पाबै उत्तम धाम
निहकामी सुमिरन करै पाबै अबिचल राम।
(अर्थ :- जो फल की आकांक्षा से प्रभु का स्मरण करता है उसे अति उत्तम फल प्राप्त होता है।
जो किसी इच्छा या आकांक्षा के बिना प्रभु का स्मरण करता है उसे आत्म साक्षातकार का लाभ मिलता है।)
5. वाद विवाद मत करो करु नित एक विचार
नाम सुमिर चित लायके, सब करनी मे सार।
(अर्थ :- बहस-विवाद व्यर्थ है। केवल प्रभु का सुमिरन करो।
पूरे चित एंव मनों योग से उनका नाम स्मरण करो। यह सभी कर्मों का सार है।)
Kabir ke dohe (वीरता)
1.सिर राखे सिर जात है, सिर कटाये सिर होये
जैसे बाती दीप की कटि उजियारा होये।
(अर्थ :- सिर अंहकार का प्रतीक है। सिर बचाने से सिर चला जाता है-परमात्मा दूर हो जाता हैं।
सिर कटाने से सिर हो जाता है। प्रभु मिल जाते हैं जैसे दीपक की बत्ती का सिर काटने से प्रकाश बढ़ जाता है।)
2. साधु सब ही सूरमा, अपनी अपनी ठौर
जिन ये पांचो चुरीया, सो माथे का मौर।
(अर्थ :- सभी संत वीर हैं-अपनी-अपनी जगह में वे श्रेष्ठ हैं। जिन्होंने काम,क्रोध,लोभ,मोह
एंव भय को जीत लिया है वे संतों में सचमुच महान हैं।)
3. सूरा के मैदान मे, क्या कायर का काम
कायर भागे पीठ दैई, सूर करै संग्राम।
(अर्थ :- वीरों के युद्ध मैदान में कायरों का क्या काम। कायर तो युद्ध छोड़ कर पीठ दिखाकर भाग जाता है।
पर वीर निरंतर युद्ध में डटा रहता है। वीर भक्ति और ज्ञान के संग्राम में रत रहता है।)
4. सूरा सोई जानिये, पांव ना पीछे पेख
आगे चलि पीछा फिरै, ताका मुख नहि देख।
(अर्थ :- साधना के राह में वह व्यक्ति सूरवीर है जो अपना कदम पीछे नहीं लौटाता है।
जो इस राह में आगे चल कर पीछे मुड़ जाता है उसे कभी भी नहीं देखना चाहिये।)
5. सूरा सोई जानिये, लड़ा पांच के संग
राम नाम राता रहै, चढ़ै सबाया रंग।
(अर्थ :- सूरवीर उसे जानो जो पाॅंच बिषय-विकारों के साथ लड़ता है।
वह सर्वदा राम के नाम में निमग्न रहता है और प्रभु की भक्ति में पूरी तरह रंग गया है।)
kabir das ke dohe (मोह)
1.काहु जुगति ना जानीया,केहि बिधि बचै सुखेत
नहि बंदगी नहि दीनता, नहि साधु संग हेत।
(अर्थ :- मैं कोई उपाय नहीे जानता जिससे मैं अपना खेती की रक्षा कर सकता हूॅ। न तो मैं ईश्वर की बंदगी करता हूॅं
और न हीं मैं स्वभाव में नम्र हूॅं। न हीं किसी साधु से मैंने संगति की है।)
2. जब घटि मोह समाईया, सबै भया अंधियार
निरमोह ज्ञान बिचारि के, साधू उतरै पार।
(अर्थ :- जब तक शरीर मे मोह समाया हुआ है-चतुद्रिक अंधेरा छाया है।
मोह से मुक्त ज्ञान के आधार पर संत लोग संासारिकभव सागर से पार चले जाते हंै।)
3. मोह नदी बिकराल है, कोई न उतरै पार
सतगुरु केबट साथ लेई, हंस होय जम न्यार।
(अर्थ :- यह मोह माया की नदी भंयकर है। इसे कोई नहीं पार कर पाता है। यदि सद्गुरु
प्रभु के नाविक के रुप में साथ हो तो हॅंस समान सत्य का ज्ञानी मोह समान यम दूत से वच सकता है।)
4. जहां लगि सब संसार है, मिरग सबन की मोह
सुर, नर, नाग, पताल अरु, ऋषि मुनिवर सबजोह।
(अर्थ :- जहाॅं तक संसार है यह मृगतृष्णा रुपी मोह सबको ग्रसित कर लिया है।
देवता,मनुष्य पाताल नाग और ऋषि-मुनि सब इसके प्रभाव में फॅंस गये हैं।)
5. कुरुक्षेत्र सब मेदिनी, खेती करै किसान
मोह मिरग सब छोरि गया, आस ना रहि खलिहान।
(अर्थ :- यह भुमि कुरुक्षेत्र की भाॅंति पवित्र है। किसान खेती करते हैं परंतु मोह-माया
रुपी मृग सब चर गया। खलिहान में भंडारण हेतु अन्न कुछ भी शेष नहीं रहता।)
Kabir das ke dohe (ज्ञानी)
1. छारि अठारह नाव पढ़ि छाव पढ़ी खोया मूल
कबीर मूल जाने बिना,ज्यों पंछी चनदूल।
(अर्थ :- जिसने चार वेद अठारह पुरान,नौ व्याकरण और छह धर्म शास्त्र पढ़ा हो उसने मूल तत्व खो दिया है।
कबीर मतानुसार बिना मूल तत्व जाने वह केवल चण्डूल पक्षी की तरह मीठे मीठे बोलना जानता है। मूल तत्व तो परमात्मा है।)
2. कबीर पढ़ना दूर करु, अति पढ़ना संसार
पीर ना उपजय जीव की, क्यों पाबै निरधार।
(अर्थ :- कबीर अधिक पढ़ना छोड़ देने कहते हैं। अधिक पढ़ना सांसारिक लोगों का काम है।
जब तक जीवों के प्रति हृदय में करुणा नहीं उत्पन्न होता,निराधार प्रभु की प्राप्ति नहीं होगी।)
3. ज्ञानी ज्ञाता बहु मिले, पंडित कवि अनेक
राम रटा निद्री जिता, कोटि मघ्य ऐक।
(अर्थ :- ज्ञानी और ज्ञाता बहुतों मिले। पंडित और कवि भी अनेक मिले।
किंतु राम का प्रेमी और इन्द्रियजीत करोड़ों मे भी एक ही मिलते हैं।)
4. कबीर पढ़ना दूर करु, पोथी देहु बहाइ
बाबन अक्षर सोधि के, राम नाम लौ लाइ।
(अर्थ :- कबीर का मत है कि पढ़ना छोड़कर पुस्तकों को पानी मे प्रवाहित कर दो।
बावन अक्षरों का शोधन करके केवल राम पर लौ लगाओ और परमात्मा पर ही ध्याान केंद्रित करों।)
5.ब्राहमन से गदहा भला, आन देब ते कुत्ता
मुलना से मुर्गा भला, सहर जगाबे सुत्ता।
(अर्थ :- मुर्ख ब्राम्हण से गदहा अच्छा है जो परिश्रम से घास चरता है। पथ्थर के देवता से कुत्ता अच्छा है जो
घर की सुरक्षा करना। मुर्गा एक मौलवी से बेहतर है जो सोते हुए शहर को जगाता है।)
Kabir ke dohe in hindi (वाणी)
1. कागा काको धन हरै, कोयल काको देत
मीठा शब्द सुनाये के , जग अपनो कर लेत।
(अर्थ :- कौआ किसी का धन हरण नहीं करता और कोयल किसी को कुछ नहीं देता है।
वह केवल अपने मीठी बोली से पूरी दुनिया को अपना बना लेता है।)
2.कर्म फंद जग फांदिया, जप तप पूजा ध्यान
जाहि शब्द ते मुक्ति होये, सो ना परा पहिचान।
(अर्थ :- पूरी दुनिया जप तप पूजा ध्यान और अन्य कर्मों के जाल में फंसी है परंतु
जिस शब्द से मुक्ति संभव है उसे अब तक नहीं जान पाये हैं।)
3. ऐक शब्द सुख खानि है, ऐक शब्द दुख रासि
ऐक शब्द बंधन कटै, ऐक शब्द गल फांसि।
(अर्थ :- एक शब्द सुख की खान है और एक ही शब्द दुखों का कारण बन जाता है। एक ही शब्द
हमें जीवन के सभी झोंपड़ों से निकाल देता है और यही शब्द गले की फांस बन जाता है।)
4. काल फिरै सिर उपरै, जीवहि नजरि ना जाये
कहै कबीर गुरु शब्द गहि, जम से जीव बचाये।
(अर्थ :- सिर के उपर मृत्यु नाच रहा है किंतु मनुष्य इसे देख नहीं पा राहा है।
यदि आप गुरु की शिक्षाओं का अच्छी तरह से पालन करते हैं, तो आप जीवन से बच सकते हैं।)
5. खोद खाये धरती सहै, काट कूट वनराये
कुटिल वचन साधु सहै, और से सहा ना जाये।
(अर्थ :- धरती खोदना-जोतना-कोड़ना सहती है। जंगल काट कूट सहती है। साधु कुटिल-दुष्ट वचन सहते है।
अन्य लोगों से इस प्रकार की बाते नहीं सही जाती है।)
Kabir das ke dohe in hindi (बन्धन)
1. आंखो देखा घी भला, ना मुख मेला तेल
साधु सोन झगरा भला, ना साकुत सोन मेल।
(अर्थ :- धी देखने मात्र से ही अच्छा लगता है पर तेल मुॅुह में डालने पर भी अच्छा नहीं लगता है।
संतो से झगड़ा भी अच्छा है पर दुष्टों से मेल-मिलाप मित्रता भी अच्छा नहीं है।)
2.उॅचै कुल के कारने, बंस बांध्यो हंकार
राम भजन हृदय नाहि, जायों सब परिवार।
(अर्थ :- उच्च कुल-वंश के कारण बाॅंस घमंड से बंधा हुआ अकड़ में रहते है। जिसके ह्रदय में राम की भक्ति नहीं है
उसका पूरा परिवार नष्ट हो गया है। बांस की रगड़ से आग लगने से सारा सामान जल गया)
3. उजर घर मे बैठि के, कैसा लिजय नाम
सकुट के संग बैठि के, किउ कर पाबेराम।
(अर्थ :- सुनसान उजार घर में बैठकर किसका नाम पुकारेंगे।
इसी तरह मुर्ख-अज्ञानी के साथ बैठकर ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकंेगे।)
4. एक अनुपम हम किया, साकट सो व्यवहार
निन्दा सती उजागरो, कियो सौदा सार।
(अर्थ :- मैने एक अज्ञानी से लेनदेन का व्यवहार कर के अच्छा सौदा किया।
उसके द्वारा मेरे दोषों को उजागर करने से मैं पवित्र हो गया। यह व्यापार मेरे लिये बहुत लाभदायी रहा।)
5. कबीर साकट की सभा तु मति बैठे जाये
ऐक गुबारै कदि बरै, रोज गाधरा गाये।
(अर्थ :- कबीर मूर्खों की सभा में बैठने के लिये मना करते है। यदि एक गोशाला में नील गाय, गद्हा और गाय
अगर वे साथ रहेंगे तो उनके बीच लड़ाई होगी। दुष्टों की संगति अच्छी नहीं है।)
kabir ke dohe ( बुद्धि )
1. जिनमे जितनी बुद्धि है, तितनो देत बताय
वाको बुरा ना मानिये, और कहां से लाय।
(अर्थ :- जिसके पास जितना ज्ञान और बुद्धिमत्ता है, वह बताता है। आपको उनका बुरा नहीं मानना चाहिए।
उससे अधिक वे कहाॅं से लावें। यहाॅं संतो के ज्ञान प्राप्ति के संबंध कहा गया है।)
2. कोई निन्दोई कोई बंदोई सिंघी स्वान रु स्यार
हरख विशाद ना केहरि,कुंजर गज्जन हार।
(अर्थ :- किसी की निन्दा एंव प्रशंसा से ज्ञानी व्यक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता
सियार या कुत्तों के भौंकने से सिंह पर कोई असर नहीं होता कारण वह तो हाथी को भी मार सकता है।)
3. पाया कहे तो बाबरे,खोया कहे तो कूर
पाया खोया कुछ नहीं,ज्यों का त्यों भरपूर।
(अर्थ :- जो व्यक्ति कहता है कि उसने पा लिया वह अज्ञानी है और जो कहता है
वह खो गया है मूर्ख और असंगत है और ईश्वर तत्व में नहीं खोना है क्योंकि वह हमेशा पूर्णता के साथ सभी चीजों में मौजूद है।
4. हिंदु कहुॅं तो मैं नहीं मुसलमान भी नाहि
पंच तत्व का पूतला गैबी खेले माहि।
(अर्थ :- मैं न हिंदू हूं न मुसलमान। आबादकार। इस पाॅंच तत्व के शरीर में बसने वाली
आत्मा न तो हिन्दुहै और न हीं मुसलमान।)
5. दुखिया मुआ दुख करि सुखिया सुख को झूर
दास आनंदित राम का दुख सुख डारा दूर।
(अर्थ :- दुखी प्राणी दुःख में मरता रहता है और एक सुखी व्यक्ति अपने सुख में जलता है
पर ईश्वर भक्त हमेशा दुख-सुख त्याग कर आनन्द में रहता है।)
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